कहानी संग्रह >> घर बेघर घर बेघरकमल कुमार
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जीवन और जगत के कटु यथार्थ की बेहद रचनात्मक और कलात्मक संश्लिष्टता से पूर्ण कहानियां...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘वैलेंटाइन डे’ के बाद कमल कुमार का यह छठा कहानी
संग्रह है। जीवन के विविध पक्षों से जुड़ी इनकी कहानियों का फ़लक बहुत
बड़ा है। सामाजिक असंगतियों, धर्म और जातिभेद के विषैले द्वेष के बीच
मानवीय अंतर्संबंधों की गहरी संवेदनाओं की ये सशक्त कहानियां हैं। इनमें
स्त्री होने के पुराने मिथक को तोड़ती, पितृसत्ता की सामंतशाही के विरुद्ध
खड़ी और जीवन का अपना अर्थ तलाशती औरतें हैं। इन कहानियों की विषयवस्तु और ट्रीटमेंट चुनौतीपूर्ण हैं। इनमें परिवार के छद्म स्वार्थों की आपाधापी से
निकल कर समाज के दोग़ले मानदंडों को ठुकराकर अपना सुख और साहचर्य तलाशती स्त्रियां हैं। तो भी, चतुर्दिक बिखरी क्रूरताओं से भी सब कुछ चुका नहीं
है। जीवन और जगत के कटु यथार्थ की बेहद रचनात्मक और कलात्मक संश्लिष्टता
से ये कहानियां पाठक को चमत्कृत भी करती हैं और स्तब्ध भी।
आवरण फ़ोटो : सुभाशीष करमाकर
कमल कुमार का जन्म अंबाला (हरियाणा) में हुआ। आपने पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. और दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की। आपकी कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और स्त्री विमर्श की 23 पुस्तकें प्रकाशित हैं। साहित्यिक, सामाजिक और स्त्री विषयक सौ से भी अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
आपको उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से साहित्यभूषण, साहित्य अकादमी, दिल्ली से साहित्यकार सम्मान तथा एन.आर.ई. संस्कृति और साहित्यसभा, जॉर्जिया, अटलांटा (अमेरिका) द्वारा रचनाकार सम्मान से सम्मानिक किया गया है। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। अंतरविषयी अध्ययन, साहित्य, स्त्री अध्ययन और मीडिया से, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, कैथोलिक यूनिवर्सिटी बैल्जियम तथा दूसरे विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। संप्रति आप दिल्ली में निवास करती हैं।
आवरण फ़ोटो : सुभाशीष करमाकर
कमल कुमार का जन्म अंबाला (हरियाणा) में हुआ। आपने पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. और दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की। आपकी कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और स्त्री विमर्श की 23 पुस्तकें प्रकाशित हैं। साहित्यिक, सामाजिक और स्त्री विषयक सौ से भी अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
आपको उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से साहित्यभूषण, साहित्य अकादमी, दिल्ली से साहित्यकार सम्मान तथा एन.आर.ई. संस्कृति और साहित्यसभा, जॉर्जिया, अटलांटा (अमेरिका) द्वारा रचनाकार सम्मान से सम्मानिक किया गया है। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। अंतरविषयी अध्ययन, साहित्य, स्त्री अध्ययन और मीडिया से, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, कैथोलिक यूनिवर्सिटी बैल्जियम तथा दूसरे विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। संप्रति आप दिल्ली में निवास करती हैं।
अनुक्रम
नालायक़
चौधरी का पारा चढ़ गया था। हाथ में पकड़ी रिपोर्ट को उन्होंने मेज़ पर पटक
दिया था। गोपी को आगे-पीछे धकेलते हुए उसके सिर पर, पीठ पर, मुंह पर, जहां
हाथ जाता थप्पड़ मारते जा रहे थे। शांति पहले तो चुप रही फिर जल्दी से उठ
कर बाप-बेटे के बीच में आ गई थी। चौधरी के हाथों से गोपी को छुड़ाने के
लिए दाएं-बाएं हो रही थी। चौधरी ने एक ज़ोर का थप्पड़ उसकी गुद्दी पर मारा
था और उसे धकेल दिया
था–‘‘नालायक़।’’
शांति ने गोपी को अपनी गोदी में भर लिया था
‘‘बच्चे के सिर पर मार रहे हो ? गुद्दी पर क्यों मारा ? इससे बच्चे की अक़्ल कम होती है।’’
चौधरी व्यंग्य से बोला था, ‘‘अक़्ल होगी तो कम-ज़्यादा होगी न ! यह सबसे बड़ा और सबसे नालायक़। वे तीन भी तो इसी के भाई हैं। इसी के स्कूल में पढ़ते हैं। उन सबके अच्छे नम्बर आए। अपना देवी तो पहले नंबर पर आया है। हरि और शंकर के नंबर भी अच्छे हैं। इसी को भगवान की मार पड़ी है। हिसाब में तो फिर से फ़ेल हो गया। मास्टर ने साफ़ लिखा है–बाक़ी विषयों में पास है, इसलिए इस बार तो अगली क्लास में किया जा रहा है। पर अगली कक्षा दसवीं में बोर्ड की परीक्षा होगी, तब हम कुछ नहीं करेंगे।’’
‘‘चलो जी—ऽ बच्चा पास तो हो गया। अगली क्लास में भी आ गया। साल पड़ा है अभी तो। मेहनत कर लेगा। सब ठीक हो जाएगा।’’ शांति गोपी को अंदर ले गई थी। उसका मुंह-हाथ धुलाया, पुचकारा, ‘‘ले, थोड़ा दूध पी ले।’’ गोपी आज्ञाकारी बच्चे सा उसका कहा मान रहा था। ‘‘थोड़ी मेहनत कर लेना बेटा, अभी पूरा साल पड़ा है। जो समझ में ना आए, पूछ लिया कर।’’
‘‘अच्छा मां—ऽ।’’ सामान्य होकर वह खेलने चला गया था।
पर बात यहां ख़त्म कहां हुई थी ? तिमाही और छमाही परीक्षाओं में भी गोपी के हिसाब में अंक अच्छे नहीं थे। बाक़ी तीनों भाइयों के परीक्षा-परिणाम बहुत अच्छे थे। शांति ने तिमाही की रिपोर्ट तो चौधरी को दिखाई ही नहीं थी। छमाही परीक्षा को देखकर वह फिर आगबबूला हुआ था। शांति ने समझाया था, ‘‘यूं मारने-पीटने से क्या होगा ? एक विषय है जो बच्चे को नहीं आता। आप ख़ुद क्यों नहीं पढ़ा देते अपने पास बैठाकर ?’’ चौधरी को सुझाव बुरा नहीं लगा था। वह दुकान से आता, हाथ-मुंह धोकर नाश्ता करके गोपी को अपना बस्ता लेकर आने के लिए कहता। गोपी चौधरी के आते ही इधर-उधर होने की कोशिश करता। पर कैसे ? उसके चेहरे का रंग उड़ जाता। उसका गला सूखने लगता। कभी-कभी तो उसे हल्का बुख़ार भी हो जाता। बेबस सा वह बस्ता लेकर आता और धीरे-धीरे कॉपी पेंसिल किताब निकालता। चौधरी उसे अनमने भाव से पांच-छह सवाल कॉपी पर लिखवाते—‘‘चल अब कर इन्हें। ध्यान से।’’
गोपी आंखें गड़ाकर, पूरा दिमाग़ लगाकर सवालों के जवाब तलाशता बैठा रहता। दिनभर के थके-मांदे चौधरी आधे सोए, आधे जागे एकाएक पूछते, ‘‘अबे हो गया ?’’ उनकी आवाज़ से उसकी रूह कांप जाती—कभी उसके हाथ से कॉपी छूट जाती, कभी पेंसिल।
नींद का एक झोंका लेकर वे फिर आवाज़ देते, ‘‘ए गोपी—ऽ कितने सवाल हो गए ?’’
गोपी ख़ाली पृष्ठ पर यूं ही पेंसिल रखकर बैठा रहता। जैसे ही चौधरी पूरे जागकर बैठते, वह अपनी कनपटियों पर हाथ रखकर पिटने की मुद्रा में आ जाता। वे कभी पीटते और कभी ऊंची आवाज में उसे ‘नालायक़’ क़रार कर उठकर चले जाते।
चौधरी दुकान से आए तो खुंदक में थे। लेनेवाले सिर पर सवार रहते और माल लेकर गए लोगों का पता ही नहीं चलता। माल की ख़रीद का ऑर्डर आज दो-तीन दिन के लिए टालना पड़ा था।
शांति उनका सूखा सा चेहरा देखकर ही समझ गई थी, ज़रूर देनदारों का ही रफ्फड़ होगा। उन्हें नाश्ता देते हुए उसने अपनी तरफ़ से कहा था, ‘‘भगवान पर भरोसा रखो जी—ऽ सब ठीक हो जाएगा। बिज़नेस में ये सब होता रहता है।’’ वह उन्हें नाश्ता कराकर अंदर चली गई थी। चौधरी ने गोपी को आवाज़ दी थी। गोपी कहीं दिखाई नहीं दिया था। वार्षिक परीक्षा में कुल एक महीना बचा था। ‘‘इस समय कहां है यह लड़का ?’’ शांति ने भीतर से कहा था, ‘‘अभी आ जाता है। आज शनिवार है। कल इतवार की छुट्टी है। दूसरे बच्चों के साथ बाहर खेल रहा होगा। चाहो तो रहने दो आज। तुम्हारा जी भी ठीक नहीं।’’
‘‘तू बुला उसको। परीक्षा सिर पर आ गई है। तेरे साहबज़ादे अभी तक बेफ़िक्र खेल रहे हैं।’’
गोपी आया था। डरा-सहमा सा बस्ते से कॉपी, किताब, पेंसिल निकालने लगा था। उसे ज्योमेट्री बॉक्स खोलकर कंपास निकाली थी और सोचा था उसी में से पेंसिल निकाल ले। देर लगती देख चौधरी आपा खो बैठा था। और छिटककर चारपाई से उठा था। गोपी समझ गया था और मार खाने की मुद्रा में अपने हथेलियों को कनपटियों पर रख लिया था। चौधरी का करारा हाथ जैसे ही पड़ा, वे उछलकर दूर हट गए थे। उनके हाथ से ख़ून की धार फूट पड़ी थी। गोपी ने वैसे ही कंपास पकड़े-पकड़े हाथ कनपटियों पर रख लिए थे। कंपास की नोक चौधरी की हथेली में चुभ गई थी। चौधरी की चीत्कार सुनकर शांति आई थी।
‘‘ओ हो—ऽ यह क्या हुआ ? इतना ख़ून। यह तो रुक ही नहीं रहा।’’ शांति ने आवाज़ दी थी ‘‘अरे हरि, शंकर, देवी कोई है क्या ? आओ तो ज़रा।’’
हरि पानी ले आया था। शांति ने धोती फाड़कर पट्टी गीली करके उस पर बांधी थी। पर ख़ून रुक ही नहीं रहा था। कितनी देर तक हथेली नल के नीचे भी रखी। ख़ून तब भी नहीं रुका। ‘‘अरे हरि, पड़ोस से डॉक्टर चाचा को तो बुला ला।’’ ‘‘हुआ क्या ? यह तो बताओ।’’ शांति परेशान थी।
चौधरी ने बढ़कर सहमे हुए गोपी को दबोच लिया था। उसने मुट्ठी में अभी भी कंपास वैसे ही पकड़ी हुई थी। उन्होंने उसे नीचे गिरा दिया था और पैरों की ठोकरों से उसकी धुनाई करने लगे थे, ‘‘ये इससे पूछ।’’ शांति बेहाल थी। किसी तरह चौधरी को मारने से रोका था। गोपी बेदम फ़र्श पर ढह गया था।
हरि भागा-भागा गया था। डॉक्टर को ले आया था। डॉ. सुभाष आ गया था।
‘‘अरे चौधरी भाई, क्या हो गया ?’’
उन्होंने फिर से नल के नीचे उनकी हथेली रखी। फ़्रिज से बर्फ लाने को कहा। बर्फ़ की डली चोट पर रखी। दो-चार मिनट में ही ख़ून बंद हो गया था। डॉक्टर सुभाष ने दवाई लगाकर पट्टी बांध दी थी।
‘‘चौधरी भाई, यह कोई नुकीली चीज़ चुभी है। हुआ क्या ?’’ पल भर में सबके चेहरों पर सन्नाटा छा गया था। शांति ने बात संभाली थी। ‘‘कुर्सी के हत्थे की कील निकली थी। देखा नहीं इन्होंने। धम से कुर्सी पर बैठ गए और कील हथेली में चुभ गई।’’
‘‘सुबह क्लीनिक में आ जाइएगा टिटनेस का इंजेक्शन लगा दूंगा। आ जाना भाई साहब ज़रूर। पता नहीं कैसी कील थी, ज़ंग लगा होगा। पर ऐसे कैसे पकड़ लिया आपने हत्था इतनी ज़ोर से ? कुर्सी थी भाई जी या उड़नखटोला।’’ शांति न चाहते हुए भी हंसी थी।
‘‘अब जो समझ लो सुभाष। जो होना था हुआ। आपको भी तकलीफ़ दी।’’
‘‘कैसी बात करती हैं भाभी। अच्छा—ऽ चलता हूं। कोई ख़ास बात नहीं है। फिर भी दर्द हो तो यह गोली दे देना।’’
सुभाष चला गया था। शांति बाहर दरवाज़े तक साथ आई थी। हरि, शंकर और देवी उनको घेरकर बैठ गए थे। शांति आई थी। ‘‘चलो बच्चे, आओ खाना खाओ—ऽ। आप यहीं लेटो। भिजवाती हूं आपके लिए यहीं पर।’’
हरि थाली में खाना डालकर ले आया था। शंकर भाग-भागकर गर्म रोटी रसोई ले लाता जा रहा था। देवी कह रहा था–‘‘बाबूजी, हाथ दुख तो नहीं रहा ? मैं खिला दूं ? आपका दायां हाथ है।’’
‘‘चल शैतान कहीं का।’’
‘‘नहीं बाबूजी, मज़ाक़ नहीं कर रहा। सच कह रहा हूँ।’’
‘‘अब ठीक है। तुम जाओ, जाकर खाना खाओ। अपनी मां को भेज देना।’’ तीनों चले गए थे। शांति ने उन्हें खाना भी खिला दिया। उसे ध्यान आया–अरे–ऽ गोपी ने तो खाना खाया नहीं। कहां है गोपी ? वह हड़बड़ाकर उठी थी। पूरे घर का एक चक्कर लगा आई। गोपी कहीं भी नहीं था। शांति घबराई सी उसे सारे घर में ढूंढ़ रही थी।
‘‘आपने गोपी को कहीं देखा—ऽ’’
शांति ने गोपी को अपनी गोदी में भर लिया था
‘‘बच्चे के सिर पर मार रहे हो ? गुद्दी पर क्यों मारा ? इससे बच्चे की अक़्ल कम होती है।’’
चौधरी व्यंग्य से बोला था, ‘‘अक़्ल होगी तो कम-ज़्यादा होगी न ! यह सबसे बड़ा और सबसे नालायक़। वे तीन भी तो इसी के भाई हैं। इसी के स्कूल में पढ़ते हैं। उन सबके अच्छे नम्बर आए। अपना देवी तो पहले नंबर पर आया है। हरि और शंकर के नंबर भी अच्छे हैं। इसी को भगवान की मार पड़ी है। हिसाब में तो फिर से फ़ेल हो गया। मास्टर ने साफ़ लिखा है–बाक़ी विषयों में पास है, इसलिए इस बार तो अगली क्लास में किया जा रहा है। पर अगली कक्षा दसवीं में बोर्ड की परीक्षा होगी, तब हम कुछ नहीं करेंगे।’’
‘‘चलो जी—ऽ बच्चा पास तो हो गया। अगली क्लास में भी आ गया। साल पड़ा है अभी तो। मेहनत कर लेगा। सब ठीक हो जाएगा।’’ शांति गोपी को अंदर ले गई थी। उसका मुंह-हाथ धुलाया, पुचकारा, ‘‘ले, थोड़ा दूध पी ले।’’ गोपी आज्ञाकारी बच्चे सा उसका कहा मान रहा था। ‘‘थोड़ी मेहनत कर लेना बेटा, अभी पूरा साल पड़ा है। जो समझ में ना आए, पूछ लिया कर।’’
‘‘अच्छा मां—ऽ।’’ सामान्य होकर वह खेलने चला गया था।
पर बात यहां ख़त्म कहां हुई थी ? तिमाही और छमाही परीक्षाओं में भी गोपी के हिसाब में अंक अच्छे नहीं थे। बाक़ी तीनों भाइयों के परीक्षा-परिणाम बहुत अच्छे थे। शांति ने तिमाही की रिपोर्ट तो चौधरी को दिखाई ही नहीं थी। छमाही परीक्षा को देखकर वह फिर आगबबूला हुआ था। शांति ने समझाया था, ‘‘यूं मारने-पीटने से क्या होगा ? एक विषय है जो बच्चे को नहीं आता। आप ख़ुद क्यों नहीं पढ़ा देते अपने पास बैठाकर ?’’ चौधरी को सुझाव बुरा नहीं लगा था। वह दुकान से आता, हाथ-मुंह धोकर नाश्ता करके गोपी को अपना बस्ता लेकर आने के लिए कहता। गोपी चौधरी के आते ही इधर-उधर होने की कोशिश करता। पर कैसे ? उसके चेहरे का रंग उड़ जाता। उसका गला सूखने लगता। कभी-कभी तो उसे हल्का बुख़ार भी हो जाता। बेबस सा वह बस्ता लेकर आता और धीरे-धीरे कॉपी पेंसिल किताब निकालता। चौधरी उसे अनमने भाव से पांच-छह सवाल कॉपी पर लिखवाते—‘‘चल अब कर इन्हें। ध्यान से।’’
गोपी आंखें गड़ाकर, पूरा दिमाग़ लगाकर सवालों के जवाब तलाशता बैठा रहता। दिनभर के थके-मांदे चौधरी आधे सोए, आधे जागे एकाएक पूछते, ‘‘अबे हो गया ?’’ उनकी आवाज़ से उसकी रूह कांप जाती—कभी उसके हाथ से कॉपी छूट जाती, कभी पेंसिल।
नींद का एक झोंका लेकर वे फिर आवाज़ देते, ‘‘ए गोपी—ऽ कितने सवाल हो गए ?’’
गोपी ख़ाली पृष्ठ पर यूं ही पेंसिल रखकर बैठा रहता। जैसे ही चौधरी पूरे जागकर बैठते, वह अपनी कनपटियों पर हाथ रखकर पिटने की मुद्रा में आ जाता। वे कभी पीटते और कभी ऊंची आवाज में उसे ‘नालायक़’ क़रार कर उठकर चले जाते।
चौधरी दुकान से आए तो खुंदक में थे। लेनेवाले सिर पर सवार रहते और माल लेकर गए लोगों का पता ही नहीं चलता। माल की ख़रीद का ऑर्डर आज दो-तीन दिन के लिए टालना पड़ा था।
शांति उनका सूखा सा चेहरा देखकर ही समझ गई थी, ज़रूर देनदारों का ही रफ्फड़ होगा। उन्हें नाश्ता देते हुए उसने अपनी तरफ़ से कहा था, ‘‘भगवान पर भरोसा रखो जी—ऽ सब ठीक हो जाएगा। बिज़नेस में ये सब होता रहता है।’’ वह उन्हें नाश्ता कराकर अंदर चली गई थी। चौधरी ने गोपी को आवाज़ दी थी। गोपी कहीं दिखाई नहीं दिया था। वार्षिक परीक्षा में कुल एक महीना बचा था। ‘‘इस समय कहां है यह लड़का ?’’ शांति ने भीतर से कहा था, ‘‘अभी आ जाता है। आज शनिवार है। कल इतवार की छुट्टी है। दूसरे बच्चों के साथ बाहर खेल रहा होगा। चाहो तो रहने दो आज। तुम्हारा जी भी ठीक नहीं।’’
‘‘तू बुला उसको। परीक्षा सिर पर आ गई है। तेरे साहबज़ादे अभी तक बेफ़िक्र खेल रहे हैं।’’
गोपी आया था। डरा-सहमा सा बस्ते से कॉपी, किताब, पेंसिल निकालने लगा था। उसे ज्योमेट्री बॉक्स खोलकर कंपास निकाली थी और सोचा था उसी में से पेंसिल निकाल ले। देर लगती देख चौधरी आपा खो बैठा था। और छिटककर चारपाई से उठा था। गोपी समझ गया था और मार खाने की मुद्रा में अपने हथेलियों को कनपटियों पर रख लिया था। चौधरी का करारा हाथ जैसे ही पड़ा, वे उछलकर दूर हट गए थे। उनके हाथ से ख़ून की धार फूट पड़ी थी। गोपी ने वैसे ही कंपास पकड़े-पकड़े हाथ कनपटियों पर रख लिए थे। कंपास की नोक चौधरी की हथेली में चुभ गई थी। चौधरी की चीत्कार सुनकर शांति आई थी।
‘‘ओ हो—ऽ यह क्या हुआ ? इतना ख़ून। यह तो रुक ही नहीं रहा।’’ शांति ने आवाज़ दी थी ‘‘अरे हरि, शंकर, देवी कोई है क्या ? आओ तो ज़रा।’’
हरि पानी ले आया था। शांति ने धोती फाड़कर पट्टी गीली करके उस पर बांधी थी। पर ख़ून रुक ही नहीं रहा था। कितनी देर तक हथेली नल के नीचे भी रखी। ख़ून तब भी नहीं रुका। ‘‘अरे हरि, पड़ोस से डॉक्टर चाचा को तो बुला ला।’’ ‘‘हुआ क्या ? यह तो बताओ।’’ शांति परेशान थी।
चौधरी ने बढ़कर सहमे हुए गोपी को दबोच लिया था। उसने मुट्ठी में अभी भी कंपास वैसे ही पकड़ी हुई थी। उन्होंने उसे नीचे गिरा दिया था और पैरों की ठोकरों से उसकी धुनाई करने लगे थे, ‘‘ये इससे पूछ।’’ शांति बेहाल थी। किसी तरह चौधरी को मारने से रोका था। गोपी बेदम फ़र्श पर ढह गया था।
हरि भागा-भागा गया था। डॉक्टर को ले आया था। डॉ. सुभाष आ गया था।
‘‘अरे चौधरी भाई, क्या हो गया ?’’
उन्होंने फिर से नल के नीचे उनकी हथेली रखी। फ़्रिज से बर्फ लाने को कहा। बर्फ़ की डली चोट पर रखी। दो-चार मिनट में ही ख़ून बंद हो गया था। डॉक्टर सुभाष ने दवाई लगाकर पट्टी बांध दी थी।
‘‘चौधरी भाई, यह कोई नुकीली चीज़ चुभी है। हुआ क्या ?’’ पल भर में सबके चेहरों पर सन्नाटा छा गया था। शांति ने बात संभाली थी। ‘‘कुर्सी के हत्थे की कील निकली थी। देखा नहीं इन्होंने। धम से कुर्सी पर बैठ गए और कील हथेली में चुभ गई।’’
‘‘सुबह क्लीनिक में आ जाइएगा टिटनेस का इंजेक्शन लगा दूंगा। आ जाना भाई साहब ज़रूर। पता नहीं कैसी कील थी, ज़ंग लगा होगा। पर ऐसे कैसे पकड़ लिया आपने हत्था इतनी ज़ोर से ? कुर्सी थी भाई जी या उड़नखटोला।’’ शांति न चाहते हुए भी हंसी थी।
‘‘अब जो समझ लो सुभाष। जो होना था हुआ। आपको भी तकलीफ़ दी।’’
‘‘कैसी बात करती हैं भाभी। अच्छा—ऽ चलता हूं। कोई ख़ास बात नहीं है। फिर भी दर्द हो तो यह गोली दे देना।’’
सुभाष चला गया था। शांति बाहर दरवाज़े तक साथ आई थी। हरि, शंकर और देवी उनको घेरकर बैठ गए थे। शांति आई थी। ‘‘चलो बच्चे, आओ खाना खाओ—ऽ। आप यहीं लेटो। भिजवाती हूं आपके लिए यहीं पर।’’
हरि थाली में खाना डालकर ले आया था। शंकर भाग-भागकर गर्म रोटी रसोई ले लाता जा रहा था। देवी कह रहा था–‘‘बाबूजी, हाथ दुख तो नहीं रहा ? मैं खिला दूं ? आपका दायां हाथ है।’’
‘‘चल शैतान कहीं का।’’
‘‘नहीं बाबूजी, मज़ाक़ नहीं कर रहा। सच कह रहा हूँ।’’
‘‘अब ठीक है। तुम जाओ, जाकर खाना खाओ। अपनी मां को भेज देना।’’ तीनों चले गए थे। शांति ने उन्हें खाना भी खिला दिया। उसे ध्यान आया–अरे–ऽ गोपी ने तो खाना खाया नहीं। कहां है गोपी ? वह हड़बड़ाकर उठी थी। पूरे घर का एक चक्कर लगा आई। गोपी कहीं भी नहीं था। शांति घबराई सी उसे सारे घर में ढूंढ़ रही थी।
‘‘आपने गोपी को कहीं देखा—ऽ’’
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